रेज़ा-ए-कांच की सूरत मैं बिखर जाता हूँ,
मैं उसकी याद में जब हद से गुज़र जाता हूँ,
अब गुरेज़ाँ है वो मिलने से जो कहती थी कभी,
तुमसे मिलते ही मैं कुछ और निखर जाती हूँ,
रोज खाता हूँ उसको याद न करने की क़सम,
रोज वादों से अपने ही मुकर जाता हूँ,
मुझको तमाशा बना दिया है मोहब्बत ने उसकी,
लोग कसते हैं ताने मैं जिधर जाता हूँ,
हर मोड़ पे खाया है मोहब्बत में धोखा,
अब कोई प्यार से भी पुकारे तो डर जाता हूँ।
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